Wednesday 17 February 2016

पत्थर के ख़ुदा, पत्थर के सनम


पत्थर के ख़ुदा, पत्थर के सनम
पत्थर के ही इन्सा पाए हैं

तुम शहर-ए-मोहब्बत कहते हो
हम जान बचा-कर आए हैं

बुत-खाना समझते हो जिसको
पूछो ना वहाँ क्या हालत है

हम लोग वहीं से लौटे हैं
बस शुक्र करो लौट आए हैं

हम सोच रहें हैं मुद्दत से
अब उम्र गुज़ारें भी तो कहाँ

सेहरा में खुशी के फूल नहीं
शहरों में गमों के साए हैं

होठों पे तबस्सुम हलक़ा सा
आँखों में नमी सी अए फाकिर

हम अहले-ए-मोहब्बत पर अक्सर
ऐसे भी ज़माने आए हैं




सुदर्शन फ़ाक़िर

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