Monday 22 August 2016

कुछ तो है, क्या है और क्यों है, पता नहीं, पर वो है

कुछ तो है ऐसा जो मुझे खटक रहा है
फाँस बनके जो सुई सा चुभ रहा है
क्यूँ हर बात पर आँखें नम हैं
क्यूँ ज़िंदगी के रंग थोड़े कम हैं
क्यूँ हर कोई मानो थोड़ा-थोड़ा उदास है
रूठा ज़िंदगी का सुर और रूठा हर ताल है
ना आज के सवेरे में वो पहले वाली बात है
ना ही पुष्पों की सुगंध उतनी खास है
कुछ तो है ऐसा जो मुझे खटक रहा है
फाँस बनके जो सुई सा मुझे चुभ रहा है

क्यों आज छाँव में भी धूप का अहसास है
क्यों ज़िंदगी समुन्दर में गोते खाती कश्ती के समान है
क्यों आसमान में सतरंगी रंगों का ताना बाना है
क्यों हर अपना दूर तो हर अजनबी पास है
क्यों हर लम्हे को किसी का इंतिज़ार है
कुछ तो है ऐसा जो मुझे खटक रहा है
फाँस बनके जो सुई सा मुझे चुभ रहा है

क्यों मेरे लबों को दिल की बात बयाँ करने से इन्कार है
क्यों रात के घने अंधेरे में खुद के साये की तलाश है
क्यों अपनी परछाई के पीछे भाग उसे गले लगाने की प्यास है
क्यों अपने ही अक्स में अपना वजूद ढूँढने की आस है
क्यों हर एक साँस को धड़कन के ठहरने का इंतिज़ार है
कुछ तो है ऐसा जो मुझे खटक रहा है
फाँस बनके जो सुई सा मुझे चुभ रहा है

Saturday 13 August 2016

सूखे हुए गुलाब

सूखे हुए गुलाबों पर आ तेरी यादों के छंद लिखूं,
गुलदान में जो महक रहे है उन पे कोई बंध लिखूं..

दिलजोई मुलाकात पे महकी आखों का अनुबंध लिखूं,
गहरे हुये गुलाबों से वो बिखरी प्यार की सुगंध लिखूं..

चेहरा चांद गुलाब हो गया, बातें अब क्या चंद लिखूं,
क्या जीती हूं मैं, क्या हारी हूं जीवन का निबंध लिखूं..

तेरे जिस्म से छूकर गुजरे इन गुलाबों की गंध लिखूं,
हौठों की जुम्बिश से महकायी छलकायी मकरंद लिखूं..

थमें पांव है सांस-सांस के, धड़कन भी है मंद लिखूं,
अल्फाज करूं बयां तो आती हिचकी कैसे बंद लिखूं..

मेरा इश्क किताबों सा सूखे फूलों की भीनी गंध लिखूं,
हसरतों ने की मोहब्बत रूह से रूह का संबंध लिखूं..

सोच कर लिखना कविता

सोच कर लिखना कविता,  
क्योंकि कविता शब्दों का जाल नहीं है। 

न ही भावनाओं की उलझन है। 
कविता शब्दों के ऊन से बुनी जाने वाली स्वेटर भी नहीं है। 
कविता दिलों को चीर कर निकलने को आतुर आवेग है। 
कविता उनवान हैं उन चीखती सांसों का। 
जो देह से घुस कर हृदय को छलनी कर जाती हैं। 
कविता उन गिद्धों का चरित्र है। 
जो नोच लेते हैं शरीर की बोटी-बोटी। 
कविता सिर्फ सौंदर्य का बखान नहीं है। 
कविता उन आंखों की दरिंदगी है जो 
कपड़ों के नीचे भी देह को भेद देतीं हैं। 
कविता सिर्फ नदी की कल-कल बहती धार नहीं है। 
कविता उन आशंकित नदी के किनारों की व्यथा है। 
जो हर दिन लुट रहे हैं किसी औरत की तरह। 
कविता में घने हरे-भरे वन ही नहीं हैं। 
कविता चिंतातुर जंगल की व्यथा है। 
जहां हर पेड़ पर आरी के निशान हैं। 
कविता शब्दों के जाल से इतर। 
तुम्हारी मुस्कराहट की चांदनी है। 
कविता पेड़ से गिरते पत्तों का दर्द है। 
कविता झुलसती बस्तियों की पीड़ा है। 
कविता बहुमंजली इमारतों का बौनापन है। 
विदेश में बसे बेटे की आस लिए बूढी आंखे हैं। 
कविता दहेज में जली बेटी की देह है। 
कविता रोजगार के लिए भटकता पढ़ा-लिखा बेटा है।  
कविता देशद्रोह के जलते हुए नारों में हैं। 
कविता दलित शोषित के छीने अधिकारों में है। 
कविता सिर्फ शब्दों का पजलनामा नहीं है। 
कविता बेबस घरों में घुटती औरत की कराहों में है। 

इसलिए कहता हूं की सोच कर लिखना कविता 
क्योंकि कविता सिर्फ शब्दों का जाल नहीं है।

क्या मैं लिख सकूंगा

कल एक हो गई। 
चलते-चलते आंखों में कुछ बात हो गई।

बोला पेड़ लिखते हो संवेदनाओं को। 
उकेरते हो रंग भरी भावनाओं को। 
क्या मेरी सूनी संवेदनाओं को छू सकोगे ?
क्या मेरी कोरी भावनाओं को जी सकोगे ?
मैंने कहा कोशिश करूंगा कि मैं तुम्हे पढ़ सकूं। 
तुम्हारी भावनाओं को शब्दों में गढ़ सकूं। 
बोला वो अगर लिखना जरूरी है तो मेरी संवेदनाएं लिखो तुम। 
अगर लिखना जरूरी है तो मेरी भावनाएं लिखो तुम।  
क्यों नहीं रुक कर मेरे सूखे गले को तर करते हो ?
क्यों नोंच कर मेरी सांसे ईश्वर को प्रसन्न करते हो ?
क्यों मेरे बच्चों के शवों पर धर्म जगाते हो ?
क्यों हम पेड़ों के शरीरों पर धर्मयज्ञ करवाते हो ?
क्यों तुम्हारे सामने विद्यालय के बच्चे तोड़ कर मेरी टहनियां फेंक देते हैं ?
क्यों तुम्हारे सामने मेरे बच्चे दम तोड़ देते हैं ?
हजारों लीटर पानी नालियों में तुम क्यों बहाते हो ?
मेरे बच्चों को बूंद-बूंद के लिए तुम क्यों तरसाते हो ?
क्या मैं तुम्हारे सामाजिक सरोकारों से इतर हूं ?
क्या मैं तुम्हारी भावनाओं के सागर से बाहर हूं ?
क्या तुम्हारी कलम सिर्फ हत्याओं एवं बलात्कारों पर चलती है ?
क्या तुम्हारी लेखनी क्षणिक रोमांच पर ही खिलती है ?
अगर तुम सचमुच सामाजिक सरोकारों से आबद्ध हो। 
अगर तुम सचमुच पर्यावरण के लिए प्रतिबद्ध हो। 
लेखनी को चरितार्थ करने की कोशिश करो। 
पर्यावरण संरक्षण को अपने आचरण में लाने की कोशिश करो। 
कोशिश करो कि कोई पौधा न मर पाए। 
कोशिश करो कि कोई पेड़ न कट पाए। 
कोशिश करो कि नदियां शुद्ध हो। 
कोशिश करो कि अब न कोई युद्ध हो। 
कोशिश करो कि कोई भूखा न सो पाए। 
कोशिश करो कि कोई न अबला लूट पाए। 
हो सके तो लिखना की नदियां रो रही हैं। 
हो सके तो लिखना की सदियां सो रही हैं। 
हो सके तो लिखना की जंगल कट रहे हैं। 
हो सके तो लिखना की रिश्ते बंट रहे हैं। 
लिख सको तो लिखना हवा जहरीली हो रही है। 
लिख सको तो लिखना कि मौत पानी में बह रही है।  
हिम्मत से लिखना की नर्मदा के आंसू भरे हुए हैं। 
हिम्मत से लिखना की अपने सब डरे हुए हैं। 
लिख सको तो लिखना की शहर की नदी मर रही है। 
लिख सको तो लिखना की वो तुम्हे याद कर रही है।
क्या लिख सकोगे तुम गोरैया की गाथा को? 
क्या लिख सकोगे तुम मरती गाय की भाषा को ?
लिख सको तो लिखना की तुम्हारी थाली में कितना जहर है। 
लिख सको तो लिखना की ये अजनबी होता शहर है। 
शिक्षक हो इसलिए लिखना की शिक्षा सड़ रही है। 
नौकरियों की जगह बेरोजगारी बढ़ रही है। 
शिक्षक हो इसलिए लिखना कि नैतिक मूल्य खो चुके हैं। 
शिक्षक हो इसलिए लिखना कि शिक्षक सब सो चुके हैं। 
मैं आवाक् था उस पेड़ की बातों को सुनकर। 
मैं हैरान था उस पेड़ के इल्जामों को गुन कर। 
क्या वास्तव में उसकी भावनाओं को लिख पाऊंगा?
या यूं ही संवेदना हीन गूंगा रह जाऊंगा। 

कल एक हो गई। 
चलते-चलते आंखों में कुछ बात हो गई।

तुमने ही तो सिखलाया था, ये संसार तो छोटा है

पापा मेरी नन्ही दुनिया, तुमसे मिल कर पली-बढ़ी 
आज तेरी ये नन्ही बढ़कर, तुझसे इतनी दूर खड़ी
 
तुमने ही तो सिखलाया था, ये संसार तो छोटा है 
तेरे पंखों में दम है तो, नील गगन भी छोटा है 
 
कोई न हो जब साथ में तेरे, तू बिलकुल एकाकी है 
मत घबराना बिटिया, तेरे साथ में पप्पा बाकी हैं 

पीछे हटना, डरना-झुकना, तेरे लिए है नहीं बना 
आगे बढ़ कर सूरज छूना, तेरी आंख का है सपना 
 
तुझको तो सूरज से आगे, एक रस्ते पर जाना है 
मोल है क्या तेरे वजूद का दुनिया को बतलाना है
 
आज तो पापा मंजिल भी है, दम भी है परवाजों में 
एक आवाज नहीं है लेकिन, इतनी सब आवाजों में 
 
सांझ की मेरी सैर में हम-तुम, साथ में मिल कर गाते थे 
कच्चे-पक्के अमरूदों को, संग-संग मिल कर खाते थे
 
उन कदमों के निशान पापा, अब भी बिखरे यहीं-कहीं 
कार भी है, एसी भी है, पर अब सैरों में मज़ा नहीं 
 
कोई नहीं जो आंसू पोछें, बोले पगली सब कर लेंगे 
पापा बेटी मिलकर तो हम, सारे रस्ते सर कर लेंगे 
 
इतनी सारी उलझन है और पप्पा तुम भी पास नहीं 
ये बिटिया तो टूट चुकी है, अब तो कोई आस नहीं 
 
पर पप्पा ! तुम घबराना मत, मैं फिर भी जीत के आउंगी 
मेरे पास जो आपकी सीख है, मैं उससे ही तर जाऊंगी
 
फिर से अपने आंगन में हम साथ में मिल कर गाएंगे 
देखना अपने मौज भरे दिन फिर से लौट के आएंगे

पिता - आंसुओं और मुस्कान का समुच्चय

पिता आंसुओं और मुस्कान का वह समुच्चय, 
जो बेटे के दुख में रोता, तो सुख में हंसता है
उसे आसमान छूता देख अपने को कद्दावर मानता है 
तो राह भटकते देख कोसता है अपनी किस्मत की बुरी लकीरों को।
 
पिता गंगोत्री की वह बूंद, जो गंगा सागर तक
पवित्र करने के लिए धोता रहता है एक-एक तट, एक-एक घाट।

समंदर के जैसा भी है पिता, जिसकी सतह पर खेलती हैं असंख्य लहरें, 
तो जिसकी गहराई में है खामोशी ही खामोशी। 
वह चखने में भले खारा लगे, 
लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है 
तो हो जाता है मीठे से मीठा...

तब जब तुम मिले

हां,मैंने भी देखा था 
मुझको 
उस समय... 
तब जब 
तुम मिले तो चंद्र-सी चमक 
मेरे चेहरे पर निखर आई थी 
सूर्य-सा सौभाग्य मेरे माथे पर सज उठा था 

तुम्हारे साथ का जादू ही था कि 
आ गया मुझमें धरा-सा धैर्य
और अरमानों को मिल गया वायु-सा वेग 
जीवन जल-सा सरल-तरल हो गया..... 
झरने-सी कलकल झर-झर
खूब सारी खुशियों का स्वर 
सुना था मैंने हर तरफ....

तारों-सी टिमटिम 
दमकती मुस्कुराती मेरी चूनरी ने 
देखा था मुझको
मुझे ही निहारते हुए... 
और मैंने शर्मा कर फैला दिया था उसे 
आसमानी असीमता को छूने के लिए 
लहराते हुए... 
हां,मैंने भी देखा था 
मुझको ... तुम जब मिले थे...

पिता जो हूं

बचपन में लौटने के लिए
 
पांच बरस की अपनी बेटी बन जाना चाहता हूं मैं 
 
मनोरंजन पार्क की हवा में लहराती नाव में बैठकर
नीम की सबसे ऊंची पत्ती को छूकर
खिलौना रेलगाड़ी के आखिरी डिब्बे से
चहकना चाहता हूं

जल्दी घर लौटनें की हिदायत और
आंखें झपकाती
सुनहरे बालों वाली गुड़िया की फरमाइश के बाद
दरवाजे की ओट में छुपकर
शेर की परिचित आवाज से
डरा लेना चाहता हूं स्वयं को
 
झूल जाना चाहता हूं अपने ही कंधों पर
नन्हीं बाहों के सहारे।

बाबुल की यादों को बांटती

बाबुल से आती चिट्ठी पढ़कर  
खुश होती, रोती भी   
बाबुल की यादों को बांटती 
सुनाती सखी-सहेलियों में ।

चिट्ठियों को संभाल कर रखती जाती 
बाबुल की जब आती याद 
तो पढ़ कर 
संतोष कर लेती ।
 
डाकिया और चिट्ठी का होता था  
हर पल इंतजार 
वो भी एक जमाना था ।
 
अब ये भी एक जमाना है 
जिनकी बेटियां है 
बस उनके ही 
बाबुल से आता है 
मोबाईल पर 
संदेश ।
 
बाबुल भी क्या करे ?
बेटियां भ्रूण हत्याओं से हो गई 
दुनिया में कम 
इसलिए  
हो गए है अब गुमसुम ।
 
भ्रूण हत्याओं को 
रोकना होगा ताकि बेटियां 
बाबुल की 
यादों को पा सके 
और पा सके 
हर बाबुल अपनी बिटिया का प्यार ।

मैं, चांद, इंतजार और तुम

चांद टकटकी देख रहा मैं, इंतजार कराया करती हूं
आंख मिचौली सी करती, हर रात सजाया करती हूं।
 
तिरछी चितवन से तारों की, तड़पन निहारा करती हूं
तन्हाई का इक इक क्षण, चितचोर सजाया करती हूं
मेरी आरोही सांसो में, यादों का गीत सजा कर के
मुखरि‍त मन से ही अंतर्तम, संगीत सजाया करती हूं
चांद टकटकी देख रहा मैं, इंतजार कराया करती हूं

थाम उजाले का दामन, सुख स्वप्न सजाया करती हूं
हंसी ठिठोली सुख की हो, कुछ स्वांग रचाया करती हूं
अमृत के फीके प्याले जब, जीवन में सांसे ना भरे
आशाओ की मदिरा का, रसपान कराया करती हूं
चांद टकटकी देख रहा मैं, इंतजार कराया करती हूं
 
स्पंदित धड़कन पे बारिश का, मोर नचाया करती हूं
बंधी अधूरी परिभाषा, खिलती भोर सजाया करती हूं
धूप संग मेरी परछाई, यूं चलते-चलते कभी ना थके
तुझ संग मेरे मीत, प्रीत की ये डोर बंधाया करती हूं
चांद टकटकी देख रहा मैं, इंतजार कराया करती हूं

चांद टकटकी देख रहा मैं, इंतजार कराया करती हूं
आंख मिचौली सी करती, हर रात सजाया करती हूं।

एक कमरे की जिंदगी

एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
 
खिलखिलाते से बचपन लिए खिलती
कभी बहकती जवानी लिए जिंदगी
लड़खड़ाता बुढ़ापा लिए लड़खड़ाती
आती जन्म-मरण-परण लिए जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी

समय शून्य में अठखेलियों सी जिंदगी
मुट्ठी में बंद कुछ निशानियों को कसती
दीवार टंगी अपनो की स्मृतियां जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी
  
खाली कोना बंद दरवाजे चुप सी सन्नाती,
खुली खिड़की से झांकती आती  जिंदगी
दरारों की वजह से दीवारों को यूं दरकती
कभी बड़ी खाइयों को भी पाटती जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी

एक कमरे में बसर करती ये जिंदगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिंदगी

मैंने देखी ही नहीं रंगों से रंगी दुनिया

मैंने देखा ही नहीं 
रंगों से रंगी दुनिया को 
मेरी आंखें ही नहीं
ख्वाबों के रंग सजाने को 
         
कौन आएगा, आंखों में समाएगा 
रंगों के रूप को, जब दिखाएगा 
रंगों पे इठलाने वालों 
डगर मुझे दिखाओ जरा 
चल सकूं मैं भी अपने पग से
रोशनी मुझे दिलाओ जरा 
ये हकीकत है कि, क्यों दुनिया है खफा मुझसे 
मैंने देखी ही नहीं...

याद आएगा, दिलों में समाएगा 
मन के मीत को पास पाएगा
आंखों से देखने वालों 
नयन मुझे दिलाओ जरा 
देख सकूं मैं भी भेदकर 
इन्द्रधनुष के तीर दिलाओं जरा 
ये हकीकत है कि, क्यों दुनिया है खफा मुझसे 
मैंने देखी ही नहीं ...
            
जान जाएगा, वो दिन आएगा 
आंखों से बोल के कोई समझाएगा 
रंगों को खेलने वालों 
रोशनी मुझे दिलाओ जरा 
देख संकू मैं भी खुशियों को
आखों मे रोशनी दे जाओ जरा
ये हकीकत है कि क्यों दुनिया है खफा मुझसे 
मैंने देखी ही नहीं...  

जीवन-चक्र

एक लंबा बांस, अकेला-अकेला
सोच रहा था, बनूं चित्रकार
 
बना चित्रकार, खुद ही आसमां का
समेटकर रंग नीला और अपना रंग पीला
बारिश के पानी में घोलकर
तैयार किया रंग हरा

तैयार किया रंग हरा, असंख्य चित्र-विचित्र
तरह-तरह के वृक्षों से
बनाया एक गहरा
 
गहरे जंगल का लंबा बांस
आखि‍र खुद का पीला रंग,
होश-हवास खो चुका था
 
अचानक...
क्या हुआ, कैसे हुआ
वह बन गया
 
बना कागज, लिया ने
बनाया फिर से हरे-भरे रंग से
वही गहरा जंगल, और
एक लंबा बांस
अकेला-अकेला

आओ, मुझमें डुबकी लगाओ

दोस्ती, खुशी का मीठा दरिया है 
जो आमंत्रित करता है हमें 
'आओ, खूब नहाओ, 
हंसी-खुशी की 
मौज-मस्ती की 
शंख-सीपियां 
जेबों में भरकर ले जाओ!

आओ, मुझमें डुबकी लगाओ, 
गोता लगाओ 
खूब नहाओ 
प्यार का मीठा पानी, 
हाथों में भरकर ले जाओ...!

किताब

घुंघट उठाकर देखा सृष्टि यूहीं खोलकर ज्ञान हुआ
पन्ने पलट-पलटकर हौले-हौले विद्वान हुआ...

लगाव हुआ था बचपन से ही, बातें सिखी किताबों से निराली
तरक्की की गहराई में डूबने लगा, गाने लगा किस्मत की कव्वाली...

आखिर किताबों की तब्दील से हुई विद्या से गहरी पहचान 
विद्या की वृद्धि के आकर्षण से दिलोदिमाग में छा गई इम्तिहान  ...
 
अध्ययन, तर्क-वितर्क, कद्र किए संपादक बना हैं दिमाग
कमाई की सबब बनी किताब बना जीवन प्रज्वलि‍त चिराग

नारी का जीवन

नारी जीवन....
आंखों से रूठी नींद
बोझिल सी पलकें
पहाड़-सी जि‍म्मेदारियां ढोती


कभी गिरतीं
कभी संभलतीं
सूरज के जगने से पहले
बहुत पहले
होती शुरू 
यात्रा लंबे सफर की 
 
कई मंजिलें, कई रुकावटें 
कभी उड़तीं, कभी लड़खड़ातीं 
 
नारी जीवन 
कभी निर्जन, कभी उपवन..!!